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कविता

पीछे जाना

सर्वेश सिंह


पीछे ही जाना हो
तो जाना नहीं समा जाना
और उधर से जाना
जिधर से सूरज निकलता है  
कोई चश्मा पहनकर भी मत जाना
नहीं तो समा नहीं पाओगे 
बच्चों-सी आँखें ले जाना
तब तुम इतिहास नहीं कुछ और देखोगे
आँसुओं के चहबच्चे
पैरों से लिपट
सुनाएँगे तुम्हें अपनी राम कहानी
और ऊपर पत्थर की खिड़कियों से झाँकती
सत्तर की सूनी आँखें
दिखाएँगी तुम्हें मनुष्य का असली अतीत 
स्मृति में तुम्हारे साजिशें भरती गई हैं 
इसीलिए फिर कह रहा हूँ
कि चश्मा पहनकर
और डूबते सूरज की तरफ से
मत जाकर समाना  
कुछ नहीं पाओगे
तुम आज अचंभित हो
कि तुम्हारे प्रेम में कोई स्वाद नहीं है
और मैं कहता हूँ कि इसका कारण है
बहुत पहले की एक स्त्री के सर्पीले बाल
जो भरी सभा में सपना देख रहे हैं
किसी के खून से धुलने का
और शायद उससे भी पहले की एक स्त्री की करुण प्रार्थना
कि ये धरती फट जाए
और मैं रहूँ उसके गर्भ में
इस धनुष-बाण की संस्कृति से बाहर
आँखों को उँगलियाँ बना टटोलना
वचनों से टुकड़े-टुकड़े हुआ प्रेम
वहीं कहीं लथपथ पड़ा होगा  
एक बात और याद रखना
पुष्पक से मत जाना
दबे पाँव जाना
और वैसे समाना जैसे समाते हैं माँ में... 
 


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